बिलासपुर। हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि अनुशासनात्मक मामलों में सजा तय करना प्रबंधन का अधिकार है और यह उनके प्रबंधकीय क्षेत्राधिकार में आता है। जब तक दी गई सजा न्याय की अंतरात्मा को झकझोरने वाली न हो, तब तक न्यायालय को हस्तक्षेप से बचना चाहिए। जस्टिस एनके व्यास की सिंगल बेंच में भिलाई स्टील प्लांट (बीएसपी) के एक पूर्व तकनीकी कर्मचारी की याचिका पर सुनवाई हुई। कर्मचारी को बिना अनुमति लंबे समय तक अनुपस्थित रहने के कारण प्रबंधन ने सेवा से बर्खास्त कर दिया था, जिसे उसने कोर्ट में चुनौती दी थी।
जस्टिस एनके व्यास ने अपने आदेश में कहा कि याचिकाकर्ता विकास कुमार 01 मई 1994 से 17 सितंबर 1994 तक बिना किसी पूर्व सूचना या स्वीकृति के लगातार 140 दिन ड्यूटी से अनुपस्थित रहा। इतना ही नहीं, इससे पहले भी वह कई बार इसी तरह लापरवाही बरत चुका था और विभागीय कार्रवाई में उसे तीन बार दंडित भी किया गया था। प्रबंधन ने अनुशासनात्मक जांच के बाद 18 अगस्त 1995 को उसे बर्खास्त कर दिया। हाई कोर्ट ने माना कि यह निर्णय नियमानुसार और उचित प्रक्रिया के तहत लिया गया है।
रिकार्ड के मुताबिक, कर्मचारी विकास कुमार की आठ साल की सेवा अवधि के दौरान उसने कई बार ड्यूटी में लापरवाही की। प्रबंधन ने पहले भी चेतावनी और दंड दिए, लेकिन इसके बावजूद वह सुधार नहीं लाया। बिना सूचना के लंबी अनुपस्थिति के बाद विभागीय जांच कर उसे बर्खास्त किया गया।
बर्खास्तगी आदेश के खिलाफ कर्मचारी ने पहले श्रम न्यायालय में याचिका दाखिल की थी, जिसमें यह दलील दी गई कि जांच प्रक्रिया न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ थी और सजा अत्यधिक कठोर थी। हालांकि, श्रम न्यायालय ने बीएसपी की कार्रवाई को सही ठहराया और याचिका खारिज कर दी। इसके बाद कर्मचारी ने हाई कोर्ट में याचिका दायर कर श्रम न्यायालय के आदेश को चुनौती दी। इसमें कहा गया कि उसकी बर्खास्तगी के खिलाफ की गई अपील अब तक लंबित है। हाई कोर्ट ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि प्रबंधन को यह अधिकार है कि वह कर्मचारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई कर सके। जब कार्रवाई नियमों के तहत और पूर्व चेतावनी के बावजूद की जाती है, तो न्यायालय को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं होती। कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रबंधन का फैसला सख्त जरूर हो सकता है, लेकिन यह न्यायसंगत और संविधान के अनुरूप है।

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