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खमरछठ का व्रत
डॉ० पालेश्वर प्रसाद शर्मा
माताएं. ममता, वात्सल्य की साक्षात् प्रतिमाएं हैं। अपनी संतान पाने और उनकी रक्षा के लिए जाने उपाय करती हैं. याने बच्चे के लिए आकाश पाताल एक कर देती हैं. उन्हें बंध्या. बांझ कहलाना कभी स्वीकार नहीं। शास्त्र में एक बच्चे की मां को काक वंध्या कहा गया है. जब शिशु मां को पुकारता है ण्ण्ण्ण्तो माता सब दुख भूलकर निहाल हो जाती है. हम देवी की आराधना मां, जगदम्बा जगज्जननी के रूप में करके कृपा, अनुकंपा प्राप्त कर लेते हैं।
भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को खमरछठ. ललही छठ. हरषष्ठी मनाते हैं। यह व्रत शुद्ध रूप में संतानों की सुरक्षा, समृद्धि के लिए संतानवती माता रखती है। खमरछठ के दिन प्रातः उपवास रहकर माताएं डोरी खरी: खलीद्ध से केश धोती है, महुआ का दातौन करती हैं. टूथपेस्ट बबूल वर्जित रहता है। इस उपवास की सबसे बड़ी विशेषता है, कि फलाहार की सब वस्तुएं बिना हल की जुती हुई भूमि की वनस्पति, फल तथा गोरस, गोधृत या गोदधि के बदले भैंस के दूध, दही, घी का उपयोग किया जाता है।
इस उपवास के लिए पूजा निमित. महुआ की पत्तल, दर्दोना, काशी के फूल, बेर के कांटे, पलाश की टहनी, मउहा की मुखारी आदि मर्दनिया याने नाई ठाकुर लाकर देता है, उसे उसका मूल्य या अन्न देकर सम्मान किया जाता है। कुंभकार या कोंहार से पोरा चुकिया मिट्टी के पात्रद्ध खरीदा जाता है, तो कैवर्त बाला. केवटिन से मउहा फूल, लाई, जोंधरा या मका की लाई जौ चना आदि लेते हैं। इस उपवास में हरिफल याने नारियल, कोमल : केंवसीद्ध खीरा या अन्यफल अर्पित किया जाता है दोपहर को आंगन में दो सगरी दो छोटी तलैया खोदकर पानी भर के उनके कगार पर काशी के फूल, बेर के कांटे, पलाश की टहनी, पत्ते खोंस कर उसे तालाब का आकार दिया जाता है, साथ ही पूजा में भौंरा, बांटी, गोली, कंचे, बेलन, चौकी, चक्की, चकरी, बाल्टी, कढ़ाई, बैलगाड़ी, भोजली डंडा, डोंगा कीचड़, धूल, छुही का उपयोग होता है।
षष्ठी की व्रत कथा के साथ पूजन में छह पान में रक्त चंदन से देवी की पुतली बनाकर छठ चढ़ाती है। छठ में दूध, दही, लाई, महवा, मका, जौधरी आदि चुकिया में भरकर चढ़ाती हैं, छठ की देवी को सिंदूर से आभूषित किया जाता है। इस पूजा में महुआ के दोने और पत्तल का ही उपयोग किया जाता है। विशेष बात कि पसहर नामक कदन्न जो तालाब, पैठू, डबरा में उत्पन्न होता है. इस लाल रंग के चावल को सूप से झींप झाड़करद्ध कर एकत्र किया जाता है. उस पसहर का भात उपवास करती माता खाती है। साधारण नमक के स्थान पर सेंधा नमक प्रयोग में लाया जाता है, और साधारण मिर्च के बदले धन मिर्ची या ठढ़मिर्चा का स्वाद लिया जाता है। अनजुती जमीन में उत्पन्न होने वाली छह प्रकार की भाजियां विशेषकर मुनगा भाजी खाने के लिए पकायी जाती है।
पूजा के पश्चात् व्रत रखने वाली माताएं अपने बच्चों को पोता या पोतनी मारती हैं। पूजा के सगरी के पानी में छुही पोता को डुबोकर बच्चों की पीठ पर छह बार मारी जाती है। फिर छठ का नैवेद्रद्य छह में महुआ के दोनों में पसहर भात भैंस का घी, दही, भाजी निकालकर उन्हें पत्तल के ऊपर रख देती हैं. फिर छह के सब दोनों में सिंदूर, चंदन, वंदन लगाती हैं, होम धूप, अगरबत्ती जलाकर, हर. षष्ठी को नेवेद्य लगाती हैं नैवेद्य में एक दोना गाय के लिए, एक दोना. जल देवता के लिए और शेष चार दोने परिवार के बच्चों के लिए फिर व्रत रखने वाली उपसहिन व्रती महिलाद्ध पसरी में पसहर भात, दही, घी, भाजी आदि का फलाहार करती हैं।
: इस उपवास या व्रत को ललही छठ, हरठछ भी कहते हैं। वास्तव में महाप्रभु शिव तथा माता शिवानी की यह पूजा है। जहां पसहर चावल उपलब्ध नहीं है वहां तालाब में उत्पन्न होने वाले सिंघाड़े का नैवेद्रद्य लगाया जाता है। इस व्रत में जूती जमीन पर भी चलना नहीं चाहिए। हरेली के बाद कृषक अपने वृषों को विश्राम देते हैं. इसी दृष्टि से बिना हल की जुती भूमि में उत्पन्न खाद्य सामग्री का प्रयोग होता है।
धर्मशास्त्र के अनुसार हमारे यहां षष्ठी नामक दो देवियों की अभ्यर्थना होती है। एक देवी की पूजा. संतान उत्पन्न होते ही प्रसूति गृह मे छठे दिन होती है. दूसरी देवी की पूजा हलषष्ठी में होती है। पहली षष्ठी देवी संतान देती है, तो दूसरी देवी उसकी रक्षा करती है। पंडित रमाकांत मिश्र शास्त्री के अनुसार इन दोनों देवियों में . पहली षष्ठी देवी कात्यायनी कहलाती है। सोलह मातृकाओं में एक मातृका भी यह नाम है। यह प्रकृति की छठी कला है, इसको स्कंद की भार्या भी कहा गया है।
ब्रह्माकैवर्त उपपुराण में इसका विशद विवरण है। प्रकृति का अंश स्वरूप जो देवसेना है, वह मातृकाओं में पूज्यतम है, और षष्ठी नाम से प्रसिद्ध है। प्रत्येक अवस्था में शिशुओं का पालन करने वाली है। यह तपस्विनी और विष्णुभक्त है, कार्तिकेय की कामिनी भी है। प्रकृति के छठे अंश का रूप है, इसलिए इसे षष्ठी कहते हैं। पुत्र. पौत्र को देने वाली और तीनों जगत् की धात्री है। यह सर्व सुंदरी, युवती, रम्या और बराबर अपने पति के पास रहने वाली है। शिशुओं के स्थान में परमा वृद्धरूपा और योगिनी है। संसार में बारहों महीने इसकी बराबर पूजा होती है।
शिशु उत्पन्न होने के छठे दिन प्रसूति गृह में इसकी पूजा होती है उसी प्रकार इक्कीसवें दिन भी इसकी पूजा कल्याण करने वाली होती है, यह बराबर नियमित और नित्य इच्छानुसार आहूत की जा सकती है। यह सदा मातृरूपा, दयारूपा और रक्षणरूपा है। यह जल स्थल और अंतरिक्ष में और यहां तक कि स्वप्न में भी शिशुओं की रक्षा करने वाली है। ममता और वात्सल्य देकर षष्ठी माता स्वयं तृप्त और आध्यायित होती है।
दूसरी षष्ठी देवी गजानन, षडानन माता पार्वती हैं, जो पहली षष्ठी की सासु मां भी है। जगदंबा सब बच्चों की रक्षा करती है, इसीलिए हरषष्ठी में उमा. महेश्वर की ही पूजा होती है। शिशुओं की रक्षा के लिए पीठ पर छह बार पोता या पोतनी क्यों मारी जाती है घ्
पौराणिक कथानुसार एक बनिया का पुत्र बार बार जन्म लेता और अकाल मृत्युवश मर जाता। बार. बार जन्म मरण के दुख से मां बाप बड़े दुखी थे। महर्षि नारद को दया आ गयी। स्वर्ग में जाकर वणिक. पुत्र से कहा. वत्स। तुम्हारे माता. पिता पृथ्वी लोक में बड़े दुखी हैं। तुम जन्म तो लेते हो, फिस अकाल असमय ही देह त्याग कर चले आते हो।
वणिक पुत्र ने उत्तर दिया. मैं क्या करूं घ् उनका पाप है, और मैं भी भोग रहा हूं। तब नारद ने उसकी मां को कुतिया के रूप में प्रत्यक्ष देखने के लिए स्वर्ग बुला लिया।
महर्षि नारद ने बनिया बेटे से कहा जाओ अपने मां बाप को देख लो. तब उसने आश्वासन दिया अच्छा मैं जरूर जाऊंगा. तब उबटन लगाती पत्नी बोल उठी. प्राणनाम आप मुझे छोड़कर पृथ्वी लोक चले जायेंगे।
“हां फिर शीघ्र ही लौट आऊंगा” उसने कहा।
इधर कुतिया उस बेसन युक्त उबटन के मैल को चाटती जा रही थी और ध्यानपूर्वक सुन भी रही
थी।
: पत्नी ने पूछा. आप जायेंगे तो फिर कैसे लौट आयेंगे, वणिक पुत्र ने बताया मैं भादों की भरी बरसात में अपनी मां से खेलने के लिए धूल मांगूगा. भरपूर बरसात में जब चारों ओर कीचड़ कांदों की बहार होगी. मां कहां से धूल लायेगीघ् मैं रो. रोकर प्राण तज दूंगा और चला जाउंगा. ष्ष्ठसकी मां सुन रही थी।
फिर वहीं किस प्रकार रूक जाओगे घ् जब मैं धूल या खिलौने आदि मांगूंगा और रोऊंगा तो मुझे पूजा हल षष्ठी की पूजा के जल में भिगोकर पेता. पोतनी. पीठ में मारकर मुझे आशीष अमृत जल से तृप्त कर देगी तो मैं वहीं रह जाऊंगा।
“वह पूजा का जल घर पोते अउँठियाये छुही. कपड़े से पीठ पर रक्षक का कार्य करता है।
यह पूजा हरषष्ठी देवी पार्वती का अनुष्ठान है, व्रत है। तब बनिया बेटे की मां ने पोता मारकर अपने बच्चे को बचा लिया। मां पार्वती. बड़ी ममता मयी है. संतान की रक्षा करती है।
यही हर गौरी. हरषष्ठी. हलषष्ठी. खमरछठ का व्रत है।