नदी मित्र ओम प्रकाश भारती ने कहा नदियों की ज़मीन हड़पने वालों के विरुद्ध कठोर कानून बने ,छोटी नदियों से है बड़ी नदियों का अस्तित्व
बिलासपुर। बिलासा कला मंच बिलासपुर और बिलासपुर प्रेस क्लब के संयुक्त तत्वावधान में आज विश्व नदी दिवस पर नदी संवाद एक आयोजन प्रेस ट्रस्ट भवन में किया गया।
प्रमुख वक्ता के रूप में देश के माने हुए नदी विशेषज्ञ प्रोफेसर ओम प्रकाश भारती थे , संवाद की अध्यक्षता बिलासा कला मंच की संस्थापक डा सोमनाथ यादव ने की। बिलासपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष दिलीप यादव, सचिव संदीप करिहार, कोषाध्यक्ष लोकेश वाघमारे, रमेश सिंग सहसचिव, कार्यकारिणी सदस्य कैलाश यादव, पूर्व अध्यक्ष इरशाद अली, मंच के संरक्षक चंद्रप्रकाश देवरस अतिथि के रूप में उपस्थित थे।
इस अवसर पर प्रोफेसर ओम प्रकाश भारती ने कहा कि
भारत की नदियाँ पूज्य और देवी-देवताओं की श्रेणी में थी। नदियां स्वर्ग से धरती पर आयी थी। राजाओं के समय में नदियाँ समाज की थी और अब सरकार की है। सरकार ने नदियों पर बाँध बनाया, नहरें निकाले गाए, पनबिजली घर बने। नदियों का प्राकृतिक वहाय अवरूद्ध हुआ। नदियों को प्राकृतिक दायित्व निभाने से रोका गया। 1837 में अंग्रेजों ने अधिनियम पारित कर नदियों को हथिया लिया। अब नदियों का उपयोग और दुरूपयोग सरकार करने लगी। उसके बाद, नदियों में प्रवाहित और झीलों में संचित पानी सरकार के अधीन आ गया। उन्होंने बाँध, वियर तथा बैराज बनाए। नहरों की मदद से खेतों को पानी दिया। पानी पर टैक्स लगाया। 1987, 2002 तथा 2012 की जलनीति के प्रावधानों से परिलक्षित होता है कि सरकार अंग्रेजों द्वारा निर्धारित जल नीति को अक्षुण रखना चाहते हैं।भारत मे सदियों से जल संरक्षण की महत्ता रही है। हमारे देश में तो नदी, तालाब और कुंआ पूज्यनीय रहें हैं लेकिन पिछले 100 सालों में कथित विकास के नाम पर हमने भूजल और जल के स्रोतों को इतना दोहन किया कि पूरी दुनिया पीने के पानी की किल्लत से जूझ रही है। देश -दुनिया में हजारों छोटी नदियां विलुप्त हो गई, तालाब और कुंआ सूख चुके हैं। भूजल का स्तर गिरता जा रहा है। 2001 के आंकड़ों को देखें, तो आज की तस्वीर काफी गंभीर है।
भारत में प्रति व्यक्ति भूमिगत जल की उपलब्धि 5,120 लीटर हो गई है।
1951 में यह उपलब्धता 14,180 लीटर थी। 1951 की उपलब्धता का अब यह 35 फीसद ही रह गई है। 1991 में यह आधे पर पहुंच गई थी। अनुमान के मुताबिक 2025 तक प्रति व्यक्ति के लिए प्रति दिन के हिसाब से 1951 की तुलना में केवल 25 फीसद भूमिगत जल ही शेष बचेगा। केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB) के आंकड़ों के मुताबिक साल 2050 तक यह उपलब्धता घटकर केवल 22 फीसद ही बचेगी। एक महत्वपूर्ण तथ्य के अनुसार हर दिन औसतन 321 अरब गैलन पानी मनुष्यों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। इसमें 77 अरब गैलन पानी अकेले पृथ्वी के भीतर से निकाला जाता है।
विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग 60% लोग नदियों के जलग्रहण क्षेत्रों में रहते हैं (UNESCO, 2022)।40% से अधिक वैश्विक खाद्यान्न उत्पादन सिंचाई के लिए नदी जल पर निर्भर है (FAO, 2021)।
भारत में प्रतिदिन लगभग 72,000 मिलियन लीटर अपशिष्ट जल उत्पन्न होता है, जिसमें से केवल 28% का ही शोधन हो पाता है (CPCB, 2021)।
भारतीय नदियों से प्रतिवर्ष लगभग 500 मिलियन टन रेत अवैध रूप से निकाली जाती है, जिससे पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ रहा है (Down to Earth, 2022)।
दुनिया की 50% से अधिक प्रमुख नदियाँ अब प्रदूषित या संकटग्रस्त हैं (UNEP, 2021)।
कृषि, उद्योग, पर्यटन और मत्स्य पालन सब नदी पर निर्भर हैं। अनुमान है कि यदि नदियों का जल उपयोग योग्य न रहा तो भारत की GDP में 6% तक की गिरावट आ सकती है (World Bank, 2020)।
वर्तमान में समाज उपभोक्ता है। पानी प्राप्त करने के लिये उसे टैक्स भड़ना पड़ता है। नदी और पानी तो प्रकृति से प्राप्त हैं और इसपर समाज का अधिकार होना चाहिए। आने वाले समय में स्वच्छ जल की उपलब्धता सरकार और समाज की सबसे बड़ी चुनौती है।
किनारों की मर्यादाओं को तोड़ना नदियों का शास्त्रसम्मत आचरण है। नदियों का प्राकृतिक दायित्व भी यही कहता है। नदियों उफनती हैं, बाढ़ लाती हैं और कई हानिकारक रालानिक अवशिष्टों को समुद्र तक बहा कर ले जाती है। धरती को साफ और उथली परतों के हानिकारक रसायनों को हटाकर पानी को निरापद बनाती है। भारतीय ज्ञान परंपरा में बाढ़ वृद्धि और समृद्धि का प्रतीक रही है। ज्ञान और धन की बाढ़ सामाजिक अपेक्षाएँ रहीं हैं। तो नदियों की बाढ़ की उपेक्षा क्यों ? नदियाँ उपेक्षित हुई । बाढ़ का पानी, नदी के कछार में मिट्टी को काटने और उपजाऊ मिट्टी जमा करने का काम करता है। बची मिट्टी को समुद्र में जमा कर डेल्टा बनाती है। नदी का अविरल वाह उसके प्राकृतिक दायित्वों को पूरा करने में मदद करता है। नदी आधारित पशुपालन और कृषि व्यवस्था से लोग दूर होते गए। विकास के योरोपीय माडल ने नदियों के दोहन के लिए उकसाया। नदियों को घेरा और बांधा गया। सड़क रोड तथा रेल लाइन निर्माण के क्रम में
नदियों का मार्ग अवरूद्ध हुआ। नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को रोका गया। नदियों ने खेत, खलिहानों और गाँव और शहरों की ओर रूख किया। पुण्यदायिनी नदियां अभिशप्त हो गयी। जिस बाढ़ के कारण जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ती थी और अच्छी फसलें होती थी, अब वह विनाशकारी है। विकास के नए माडल के कारण नदी का प्रवाह मार्ग अवरूद्ध हुआ। और नदी अभिशाप और सामाजिक समस्या के रूप में प्रकट हुई। सामाजिक संगठन बने। राजनीतिक चेतना का विकास हुआ। राष्ट्र का निमार्ण हुआ। राजतंत्र और फिर गणतंत्र बना। सामाजिक समस्याओं के निदान का दायित्व, राजतंत्र और गणतंत्र के अधिपतियों ने लिया। राजगद्दी, पद और कुर्सी पाने की प्रतिस्पर्धा में आश्वासन की संस्कृति समृद्ध होती गई। सामाजिक दायित्वबोध घटता गया ।
वेद तथा पुराणों में यहां की नदियों को जीवनदायिनी तथा मातृत्व भाव से आराधना की गयी है। ऋग्वेद में पच्चीस नदियों का उल्लेख है, जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण नदी सिंधु को कहा गया है। पूर्वी किनारे पर सिन्धु की सहायक नदियों में वितास्ता (ड्रोलम) आस्किनी (चेनाव), परूष्णी (रावी), शतुद्र (सतलज), विपासा (व्यास) मुख थी। पश्चिम किनारे में सिन्धु की सहायक नदी कुम (कुरूम), गोमती (गोमल), कुभा (काबुल) और सुवास्तु (स्वात) नामक नदियां थीं। सिन्धु नदी को उसके आर्थिक महत्व के कारण हिरण्यनी कहा गया है। सिन्धु नदी द्वार ऊनी वस्त्रों के व्यवसाय होने का कारण इसे सुवासा और ऊर्जावर्ती भी कहा गया है। ऋग्वेद में सिन्धु नदी की चर्चा सर्वाधिक बार हुई है। यजुर्वेद में कहा गया है कि पांच नदियाँ अपने पूरे प्रवाह के साथ सरस्वती नदी में प्रविष्ट होती हैं (वाजस्नेयी संहिता 34.11)। ये पांच नदियों पंजाब की सतलुज, रावी, व्यास, चेनाव और दृष्टावती हो सकती हैं। अथर्ववेद नब्बे और ऋग्वेद में निनान्न्वे नदियों का उल्लेख है। बाद के पौराणिक ग्रन्थों में भी नदियों की महत्ता का उल्लेख प्राप्त होता है। नदियों को पवित्र कहा गया है। धार्मिक रीति-रिवाजों की मदद से नदियों की शुचिता सुनिश्चित की जाती थी।
किसान खेतों में गहराई के हिसाब से धान लगाते थे। उनके पास पारंपरिक अनुभव था कि तीन फीट और पाँच फीट की गहराई में धान का कौन-सा किस्म उपजेगा। ये धान की स्थानीय जाति थी। आजकल हेब्रिड धान लगाया जा रहा है, जो थोड़े बहुत पानी को सहने में असमर्थ है। बारहवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी के बीच पश्चिम भारत की कई नदियाँ सूख गई। बड़े भूभाग रेगिस्तान में बदल गये। इस अंचल के पशुचारक और कृषक समाज के लोग गंगा के किनारे होते हुए कोसी बेसिन में आ कर बस गये। आरंभ में लोग नदी के बेसिन में सुरक्षित स्थल पर बसे, जहाँ नदियों के पानी का आवागमन नहीं था। कालांतर में जनसंख्या बढ़ी। भोजन की आवश्यकता बढ़ी। लोगों ने नदी के बेसिन का अतिक्रमण किया।
नदियों की ज़मीन हड़पने वालों के विरुद्ध कठोर कानून बने।
नदी मित्र भारती ने कहा छोटी नदियां अतिक्रमण के कारण लुप्त हो रही हैं। छोटी नदियों के प्रवाह क्षेत्र की अधिकांश ज़मीन किसान और रैयतों की है। उच्च मार्ग (हाइवे), रेलवे, उद्योग के लिए ज़मीन अधिग्रहण करने की नीति, योजना तथा अभ्यास है आपके पास, तो इन छोटी नदियों के लिए क्यों नहीं? छोटी नदियां बड़ी नदियों का आधार है। वे भी संस्कृति के प्रवाह हैं, जीवनदायिनी है। छोटे लोगों की उपेक्षा तो करते रहिए, मानव है संघर्ष उनकी नियति है। नदियां तो निर्जीव है, चल फिर तो सकती है, लेकिन कानूनी लड़ाई नहीं लड़ सकती, कोर्ट कचहरी नहीं जा सकती। उसके लिए लड़ना तो समाज को ही होगा। भारत में नदियों से संबंधित कानून मुख्य रूप से जल विवाद निपटान, प्रदूषण नियंत्रण, और संरक्षण पर केंद्रित हैं। अंतरराज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम, 1956 और नदी बोर्ड अधिनियम, 1956 प्रमुख हैं, लेकिन उनकी प्रभावशीलता सीमित रही है। नदियों के संरक्षण और प्रबंधन के लिए एक एकीकृत “नदी अधिनियम” की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
छत्तीसगढ़ की प्रदूषित तथा लुप्त होती नदियां।
हसदेव* नदी कोरबा जिले में कोयला खनन क्षेत्र से होकर बहती है। यह महानदी की सहायक नदी है। कोयला खदानों, कागज मिलों और अन्य उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्ट के कारण गंभीर प्रदूषण। एक सर्वे के अनुसार, यह छत्तीसगढ़ की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक है। भारी धातुएँ (जैसे सीसा, कैडमियम) और जैविक पदार्थों का उच्च स्तर पाया गया है, जो जल को पीने योग्य बनाने के बजाय सिंचाई के लिए भी हानिकारक बना रहा है। वाटर क्वालिटी इंडेक्स (डब्ल्यूक्यूआई) के अनुसार, अधिकांश नमूने मानक से ऊपर प्रदूषित हैं। स्थानीय आदिवासी समुदायों की आजीविका प्रभावित होने के साथ मछली और जलीय जीवन नष्ट हो रहे हैं।
शंखिनी नदी दंतेवाड़ा जिले में बैलाडीला पहाड़ी से निकलती है और इंद्रावती में मिलती है। लौह अयस्क खनन से निकलने वाले अपशिष्ट (टेलिंग डैम) के कारण एशिया की सबसे प्रदूषित नदियों में एक मानी जाती है। 1990 के एक सरकारी रिपोर्ट में 35,000 हेक्टेयर कृषि और वन भूमि क्षतिग्रस्त बताई गई। एसिड माइन ड्रेनेज और भारी धातुओं से जल का रंग लाल हो जाता है, जो पीने के लिए अयोग्य है। आसपास के लगभग 65 गाँव प्रभावित, स्वास्थ्य समस्याएँ जैसे त्वचा रोग और कैंसर बढ़ रहे हैं।
डंकिनी नदी, दंतेवाड़ा में शंखिनी के साथ इंद्रावती में विलीन होती है। शंखिनी की तरह ही खनन अपशिष्ट से प्रदूषित। दोनों नदियों का संगम स्थल (दंतेवाड़ा) विशेष रूप से प्रभावित है, जहाँ खनन से निकला गंदा पानी सीधे बहता है। नदी के किनारे बसे आदिवासी समुदायों के लिए पवित्र नदी अब विषैली हो चुकी है, जिससे सांस्कृतिक और पर्यावरणीय क्षति हो रही है।
महानदी को छत्तीसगढ़ राज्य की जीवनरेखा कही जाती है।यह धमतरी से निकलकर ओडिशा होते बंगाल की खाड़ी में गिरती है। शहरीकरण और उद्योगों (जैसे रायपुर-भिलाई क्षेत्र) से सीवेज और औद्योगिक कचरा। सीपीसीबी ने इसे प्रदूषित नदी घोषित किया है। बाँधों (जैसे हीराकुंड) से प्रवाह बाधित, जिससे सूखे में जल स्तर गिर जाता है। सिंचाई और पीने के पानी पर निर्भर लाखों लोग प्रभावित; मछली पकड़ने का व्यवसाय संकट में है।
खरून नदी दुर्ग-राजनांदगांव क्षेत्र से निकलती है।यह महानदी की सहायक नदी है।भिलाई इस्पात संयंत्र और शहरी अपशिष्ट से प्रदूषित हो रही है। इस नदी में भारी धातुओं का उच्च स्तर है, जो जल को विषैला बनाता है।
सोनाठ अथवा शिवनाथ नदी राजनांदगांव से निकलकर महानदी में मिलती है।कोयला खनन और बाँध परियोजनाओं (जैसे मोंगरा बैराज) से प्रदूषण और प्रवाह के कारण नदी संकटग्रस्त है।
केलो नदी बिलासपुर क्षेत्र से निकलती है और महानदी में मिलती है।औद्योगिक अपशिष्ट और शहरीकरण से यह प्रदूषित हो चुकी हैं।
अरपा नदी बिलासपुर से निकलकर महानदी में मिलती है।शहरी विकास और उद्योगों से प्रदूषण, जिससे जल गुणवत्ता खराब हो चुकी है।
आज भारत में चार सौ से अधिक नदियां लुप्त को होने के कगार पर हैं। आने वाले समय में जल संकट और गहराएगा। लोग बाढ़ों को भी झेल रहे हैं। मसलन बाढ़ में नौर डूबकर मरने वालों की में बढ़ोत्तरी हुई है। सरकार के पास और भी मत्वपूर्ण मुळे हैं। असली हार समाज की है। नदी और समाज का वर्षों का साहचर्य रहा है। आज नदी के आधारित पारंपरिक ज्ञान की उपेक्षा कर समाज नदियों से भिड़ रहा है और दायित्व से कतरा रहा है। नदी आधारित वे विकास के मॉडल को प्रोत्साहित करना होगा। नदियों से जुड़े समृद्ध सामाजिक ज्ञानकोष को पुनर्जीवित करना होगा। नदियां तेजी से लुप्त हो रही हैं, समाज दायित्वों से भाग रहा है और वैचारिक स्तर पर डूब रहा है।
समारोह में भारती जी का शाल स्मृति चिन्ह भेंट कर सम्मान किया गया। संचालन बिलासा कला मंच के अध्यक्ष महेश श्रीवास ने तथा आभार व्यक्त प्रेस क्लब के सचिव संदीप करिहार ने किया।

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