‘“छत्तीसगढ़ “ऐसा प्रदेश है, जिसका धानी आंचल भारत की शोभा है. यह सम्राटों, सेनानियों, संतों, सुंदरियों की लीला स्थली है और तात्रिकों का गढ़-जहां कृषक चार-अतावस्याओं-हरेली, पोला, पितृमोक्ष, दीपावली का उत्सव मनाते हैं- हरेली-हलवाली, पोला-वृक्ष वाली, पितृमोक्ष-पितरों वाली तथा दीवाली-दीपों वाली है. जब सावन कर अमावस्या-हरेली-हरियाली-हलवाली आती है तो छत्तीसगढ़ में धान-बोने का कार्य सम्पन्न हो जाता है-इसलिए हरेली के दिन हल, कोपर, राँपा, कुदाली, चतवार आदि सब उपकरणों को धोकर तेल लगाया जाता है, उस दिन कृषि कार्य की छुट्टी रहती है.’
देश भेद के अनुसार श्रावण कृष्ण आमवस्या को हरिता (या हरियाली अमा) कहते है. इस दिन किसी एकांत के जलाशय में स्नान कर दानादि करे और सदाचारी ब्राह्मणों को भोजन करावे, तो पितृगण प्रसन्न होते है.
छत्तीसगढ़ किसानों को गढ़ है. सावन की अमावस्या यहां के किसानों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण त्यौहार है. धरती का अंचल एकदम हरा-भरा हो जाता है. सरिताएं रजस्वला होकर जवानी में उफनती लहराती है, बाउग (बोनी) और बियासी (निराई) का काम लगभग समाप्त प्राय रहता है. तब ही यह उत्सव मनाया जाता है. इस दिन किसान अपने नांगर (हल) राँपा, कुदाली, टांगा बसुला आदि समस्त उपकरणों को धोते हैं, फिर उन सब हथियारों का हांथा (हाथ की छाप) देते हैं, चंदन, बंदन लगाते हैं होम धूप देकर चिला का भोग लगाते हैं, और गाय-बेल के कोठों में दर्रा (मुरुम) पाटते हैं. पंडित रमाकांत मिश्र शास्त्री के अनुसार परई (हंडी ढांकने की मट्टी का पात्र) में सिंदूर से पांडु-पुत्र अर्जुन के बारह नाम लिखकर टांगने है. ये बारह नाम हैं- अर्जुन, पाथे, फाल्गुन, जिष्णु, कौंतेय, पार्थसारथी, विजय, धनंजय, कपिध्वज, सव्यसाची, गुडाकोश और श्वेतवाहन, वर्षभर के लिए एक नारियल भी टांगते हैं,
किसान अपने बैल, भैंसा के सींग में, खुरो मे तेल लगाते हैं एरंड के पत्ते मे नमक रखकर पशु को चटाते हैं, और गाय के कोठे में नारियल बांधकर कुछ लोग कुक्कुट शावक (चियां) की बलि देते है. लोग, जो डोंगा (नाव) चलाने का व्यवसाय करते हैं, वे डोंगा के गांधी (माथे) पर सिंदूर का त्रिशूल बनाते हैं, जल देवी (छत्तीसगढ़ में जल देवी मनाते हैं) की आराधना करते हैं, और डोंगहार (नाविक) नारियल फोड़कर या चिर्या की बलि देकर डोंगा की पूजा करता है. यदि नाव की पूजा नहीं होगी। तो नाव के उलट जाने का पूरा खतरा रहता है. यह विश्वास भी है, कि डोंगी मे ममा-चाचा (मातुल भागिनेय) एक साथ नहीं बैठे, वंश रक्षा का भाव, शायद इस विश्वास के मूल में हैं, उसी प्रकार रजस्वला नारी को नाव में ले जाना वर्जित है क्योंकि नाव डूबने कर भय रहता है. यहां के कृषक पूरे आस्तिक हैं.
[03/08, 9:37 pm] निर्मल माणिक: ठेठवार, पहटिया, या राउत लोग जो अपने स्वामी या किसान के यहां गाय दुहने जाते हैं या जिस दुहने जाते हैं या जिस गृह- स्वामी के पशु धन को चराने ले जाते हैं, उनके यहां जाकर यादव लोग गौ शाला में लीम डार (नील डाल) खोचते हैं, और गृह स्वामी अन्न देकर उनका सम्मान करता हैं. उसी प्रकार हमारे छत्तीसगढ़ में लुहार को भी सम्मानित किया जाता हैं. अगरिया- वनवासी लुहार है जो मिट्टी से लोहा निकारकर कृषि के उपकरण के साथ मंत्र विद्ध कील, कांटा का निर्माण करते हैं. प्रायः ये कील तथा चुल मुंदरा, कांटा, ककण ग्रहण के पूर्व में बनाते हैं अझैर निर्माण की बेलर में वे विवस्त्र रहते हैं. चूल-मुंदरी विवाह की अंगूठी है, तो कंकण वर-वधु का कंगन है. उस समय वे कंगन है. उस समय वे लोहापुर, कांसेसुर, तांबेसुर अपने देवताओं की आराधना करते हैं, लुहार अपने गृह स्वामी के घर के मुख्य द्वार पर चौखट में कील ठोंकरकर घर को प्रेत-भूत-पिशाच बाधा से सुरक्षित कर देता हैं. तो कृषक अन्न देकर उसका सम्मान करता हैं. फसल की मिसाई के बाद कृषक यादव, नापित, बरेठ, लोहार, टहलू को अन्न देकर संतुष्ट किया जाता है यह वार्षिक अन्न देना की प्रथा-जेवर हैं. छत्तीसगढ़ में जो कृषक शाक्त है, वे प्रायः हरेली के उत्सव में सिकार (मांस) खाते हैं. लोग छुट्टी मनाते हुए घर में बरा (बड़ा) चौसेला (चावल के आटे की पुड़ी) खाते हैं. लड़के लोग गेंड़ी बनाते और गेंड़ी कर प्रतियोगिता आयोजिल करते है, गेंड़ी तीन फुट से लेकर दस फुट का लंबा बाँस है, जिसकी डांड़ कहते हैं. उस डांड में पैर रखने के लिए लगभग एक फुट बांस को चीरकाट कर पउवा बनाते हैं, जिसे बांस के डंडे में फंसाकर बरही से बांध देते हैं, और उसमें खूंटी लगा देते हैं, और आवाज पैदा करने के लिए आंरड का तेल डाल देते हैं. गेंड़ी चढ़ने का अभ्यास जरुरी हैं, अन्यथा गेंड़ी पर चलना बड़ा कठिन होता हैं, जवान लोग भी गेड़ी का मजा लेता है. गेंड़ी पर चढ़कर भकाडूडू (कबड्डी) खेलते हैं, ठिक्की लड़ाते हैं और गेंड़ी को पानी पिलाते हैं, गेंड़ी में चढ़कर नाचते हैं, वनवासी लोग तो गेंड़ी सेहाकी भी खेल सकते हैं. गेंड़ी की प्रथा संभवतः कीचड़ से पैरों को बचाने के लिए शुरु होगी. गांव के मनचले लोग बरोछ खेलते हैं, नारियल फेंकने की प्रतियोगिता द्यूत क्रीड़ा भी होती है. यदि हरेली के दिन ग्रहण (गरहन) पड़ जायें, तो पुरोहितख पंडित, गुनिया, बैगा, अगरिया लुहार आदि लोग मंत्र-यंत्र ताबीज, गंडा बनाते हैं, मंत्र साधना करते हैं, और अपनों देवी की विशेष पूजा कर पूर्व को भी विशिष्ट बनास देते हैं. दुर्गा पूजा महाविद्या है, तो दूसरी ओर आसूरी विद्या भी है. यातुधान, जातुधान से जादू की विद्या टोना, जादू पांगना, झाडू फूंक करना, मूठ मारना, बान चलाना शुरु हुई. टोनही विवस्त्रा विततकेशा होकर श्मशान में साधन करती हैं, तो पंगनहा पांगन विद्या सीखता है, नारियां टोना करती है, तो पुरूष पांगन विद्या का प्रयोग करता है- ग्रहण इनके लिए महत्वपूर्ण है.
अंत में कृषक जीवन की सफलता के लिए पाराशर ऋषि ने चार गुणों का उल्लेख किया हैं- जो किसान पशू का हितैषी, क्षेत्र पर जाने वाला समय का ज्ञाता, बीजों के रक्षण में तत्पर रहता है- वह धन-धानन्य से पूर्ण रहता हैं.
‘गाय अच्छी है और खेत में जाती है, समय जानती है और बीज के प्रति समर्पित है।
सभी फसलों में से पहला मुफ़्त है और निराशा नहीं होती है
[03/08, 9:36 pm] निर्मल माणिक: छत्तीसगढ़-ऋषि-कृषि सांस्कृतिक का गढ़
डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा
‘छत्तीसगढ़ ऐसा प्रदेश है, जिसका धानी आंचल भारत की शोभा है. यह सम्राटों, सेनानियों, संतों, सुंदरियों की लीला स्थली है और तात्रिकों का गढ़-जहां कृषक चार-अतावस्याओं-हरेली, पोला, पितृमोक्ष, दीपावली का उत्सव मनाते हैं- हरेली-हलवाली, पोला-वृक्ष वाली, पितृमोक्ष-पितरों वाली तथा दीवाली-दीपों वाली है. जब सावन कर अमावस्या-हरेली-हरियाली-हलवाली आती है तो छत्तीसगढ़ में धान-बोने का कार्य सम्पन्न हो जाता है-इसलिए हरेली के दिन हल, कोपर, राँपा, कुदाली, चतवार आदि सब उपकरणों को धोकर तेल लगाया जाता है, उस दिन कृषि कार्य की छुट्टी रहती है.’
देश भेद के अनुसार श्रावण कृष्ण आमवस्या को हरिता (या हरियाली अमा) कहते है. इस दिन किसी एकांत के जलाशय में स्नान कर दानादि करे और सदाचारी ब्राह्मणों को भोजन करावे, तो पितृगण प्रसन्न होते है.
छत्तीसगढ़ किसानों को गढ़ है. सावन की अमावस्या यहां के किसानों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण त्यौहार है. धरती का अंचल एकदम हरा-भरा हो जाता है. सरिताएं रजस्वला होकर जवानी में उफनती लहराती है, बाउग (बोनी) और बियासी (निराई) का काम लगभग समाप्त प्राय रहता है. तब ही यह उत्सव मनाया जाता है. इस दिन किसान अपने नांगर (हल) राँपा, कुदाली, टांगा बसुला आदि समस्त उपकरणों को धोते हैं, फिर उन सब हथियारों का हांथा (हाथ की छाप) देते हैं, चंदन, बंदन लगाते हैं होम धूप देकर चिला का भोग लगाते हैं, और गाय-बेल के कोठों में दर्रा (मुरुम) पाटते हैं. पंडित रमाकांत मिश्र शास्त्री के अनुसार परई (हंडी ढांकने की मट्टी का पात्र) में सिंदूर से पांडु-पुत्र अर्जुन के बारह नाम लिखकर टांगने है. ये बारह नाम हैं- अर्जुन, पाथे, फाल्गुन, जिष्णु, कौंतेय, पार्थसारथी, विजय, धनंजय, कपिध्वज, सव्यसाची, गुडाकोश और श्वेतवाहन, वर्षभर के लिए एक नारियल भी टांगते हैं,
किसान अपने बैल, भैंसा के सींग में, खुरो मे तेल लगाते हैं एरंड के पत्ते मे नमक रखकर पशु को चटाते हैं, और गाय के कोठे में नारियल बांधकर कुछ लोग कुक्कुट शावक (चियां) की बलि देते है. लोग, जो डोंगा (नाव) चलाने का व्यवसाय करते हैं, वे डोंगा के गांधी (माथे) पर सिंदूर का त्रिशूल बनाते हैं, जल देवी (छत्तीसगढ़ में जल देवी मनाते हैं) की आराधना करते हैं, और डोंगहार (नाविक) नारियल फोड़कर या चिर्या की बलि देकर डोंगा की पूजा करता है. यदि नाव की पूजा नहीं होगी। तो नाव के उलट जाने का पूरा खतरा रहता है. यह विश्वास भी है, कि डोंगी मे ममा-चाचा (मातुल भागिनेय) एक साथ नहीं बैठे, वंश रक्षा का भाव, शायद इस विश्वास के मूल में हैं, उसी प्रकार रजस्वला नारी को नाव में ले जाना वर्जित है क्योंकि नाव डूबने कर भय रहता है. यहां के कृषक पूरे आस्तिक हैं.
[03/08, 9:37 pm] निर्मल माणिक: ठेठवार, पहटिया, या राउत लोग जो अपने स्वामी या किसान के यहां गाय दुहने जाते हैं या जिस दुहने जाते हैं या जिस गृह- स्वामी के पशु धन को चराने ले जाते हैं, उनके यहां जाकर यादव लोग गौ शाला में लीम डार (नील डाल) खोचते हैं, और गृह स्वामी अन्न देकर उनका सम्मान करता हैं. उसी प्रकार हमारे छत्तीसगढ़ में लुहार को भी सम्मानित किया जाता हैं. अगरिया- वनवासी लुहार है जो मिट्टी से लोहा निकारकर कृषि के उपकरण के साथ मंत्र विद्ध कील, कांटा का निर्माण करते हैं. प्रायः ये कील तथा चुल मुंदरा, कांटा, ककण ग्रहण के पूर्व में बनाते हैं अझैर निर्माण की बेलर में वे विवस्त्र रहते हैं. चूल-मुंदरी विवाह की अंगूठी है, तो कंकण वर-वधु का कंगन है. उस समय वे कंगन है. उस समय वे लोहापुर, कांसेसुर, तांबेसुर अपने देवताओं की आराधना करते हैं, लुहार अपने गृह स्वामी के घर के मुख्य द्वार पर चौखट में कील ठोंकरकर घर को प्रेत-भूत-पिशाच बाधा से सुरक्षित कर देता हैं. तो कृषक अन्न देकर उसका सम्मान करता हैं. फसल की मिसाई के बाद कृषक यादव, नापित, बरेठ, लोहार, टहलू को अन्न देकर संतुष्ट किया जाता है यह वार्षिक अन्न देना की प्रथा-जेवर हैं. छत्तीसगढ़ में जो कृषक शाक्त है, वे प्रायः हरेली के उत्सव में सिकार (मांस) खाते हैं. लोग छुट्टी मनाते हुए घर में बरा (बड़ा) चौसेला (चावल के आटे की पुड़ी) खाते हैं. लड़के लोग गेंड़ी बनाते और गेंड़ी कर प्रतियोगिता आयोजिल करते है, गेंड़ी तीन फुट से लेकर दस फुट का लंबा बाँस है, जिसकी डांड़ कहते हैं. उस डांड में पैर रखने के लिए लगभग एक फुट बांस को चीरकाट कर पउवा बनाते हैं, जिसे बांस के डंडे में फंसाकर बरही से बांध देते हैं, और उसमें खूंटी लगा देते हैं, और आवाज पैदा करने के लिए आंरड का तेल डाल देते हैं. गेंड़ी चढ़ने का अभ्यास जरुरी हैं, अन्यथा गेंड़ी पर चलना बड़ा कठिन होता हैं, जवान लोग भी गेड़ी का मजा लेता है. गेंड़ी पर चढ़कर भकाडूडू (कबड्डी) खेलते हैं, ठिक्की लड़ाते हैं और गेंड़ी को पानी पिलाते हैं, गेंड़ी में चढ़कर नाचते हैं, वनवासी लोग तो गेंड़ी सेहाकी भी खेल सकते हैं. गेंड़ी की प्रथा संभवतः कीचड़ से पैरों को बचाने के लिए शुरु होगी. गांव के मनचले लोग बरोछ खेलते हैं, नारियल फेंकने की प्रतियोगिता द्यूत क्रीड़ा भी होती है. यदि हरेली के दिन ग्रहण (गरहन) पड़ जायें, तो पुरोहितख पंडित, गुनिया, बैगा, अगरिया लुहार आदि लोग मंत्र-यंत्र ताबीज, गंडा बनाते हैं, मंत्र साधना करते हैं, और अपनों देवी की विशेष पूजा कर पूर्व को भी विशिष्ट बनास देते हैं. दुर्गा पूजा महाविद्या है, तो दूसरी ओर आसूरी विद्या भी है. यातुधान, जातुधान से जादू की विद्या टोना, जादू पांगना, झाडू फूंक करना, मूठ मारना, बान चलाना शुरु हुई. टोनही विवस्त्रा विततकेशा होकर श्मशान में साधन करती हैं, तो पंगनहा पांगन विद्या सीखता है, नारियां टोना करती है, तो पुरूष पांगन विद्या का प्रयोग करता है- ग्रहण इनके लिए महत्वपूर्ण है.
अंत में कृषक जीवन की सफलता के लिए पाराशर ऋषि ने चार गुणों का उल्लेख किया हैं- जो किसान पशू का हितैषी, क्षेत्र पर जाने वाला समय का ज्ञाता, बीजों के रक्षण में तत्पर रहता है- वह धन-धानन्य से पूर्ण रहता हैं.
‘गाय अच्छी है और खेत में जाती है, समय जानती है और बीज के प्रति समर्पित है।
सभी फसलों में से पहला मुफ़्त है और निराशा नहीं होती है
छत्तीसगढ़-ऋषि-कृषि और संस्कृति का गढ़
डॉ। पालेश्वर प्रसाद शर्मा
‘छत्तीसगढ़ ऐसा प्रदेश है, जिसका धानी आंचल भारत की शोभा है. यह सम्राटों, सेनानियों, संतों, सुंदरियों की लीला स्थली है और तात्रिकों का गढ़-जहां कृषक चार-अतावस्याओं-हरेली, पोला, पितृमोक्ष, दीपावली का उत्सव मनाते हैं- हरेली-हलवाली, पोला-वृक्ष वाली, पितृमोक्ष-पितरों वाली तथा दीवाली-दीपों वाली है. जब सावन कर अमावस्या-हरेली-हरियाली-हलवाली आती है तो छत्तीसगढ़ में धान-बोने का कार्य सम्पन्न हो जाता है-इसलिए हरेली के दिन हल, कोपर, राँपा, कुदाली, चतवार आदि सब उपकरणों को धोकर तेल लगाया जाता है, उस दिन कृषि कार्य की छुट्टी रहती है.’
देश भेद के अनुसार श्रावण कृष्ण आमवस्या को हरिता (या हरियाली अमा) कहते है. इस दिन किसी एकांत के जलाशय में स्नान कर दानादि करे और सदाचारी ब्राह्मणों को भोजन करावे, तो पितृगण प्रसन्न होते है.
छत्तीसगढ़ किसानों को गढ़ है. सावन की अमावस्या यहां के किसानों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण त्यौहार है. धरती का अंचल एकदम हरा-भरा हो जाता है. सरिताएं रजस्वला होकर जवानी में उफनती लहराती है, बाउग (बोनी) और बियासी (निराई) का काम लगभग समाप्त प्राय रहता है. तब ही यह उत्सव मनाया जाता है. इस दिन किसान अपने नांगर (हल) राँपा, कुदाली, टांगा बसुला आदि समस्त उपकरणों को धोते हैं, फिर उन सब हथियारों का हांथा (हाथ की छाप) देते हैं, चंदन, बंदन लगाते हैं होम धूप देकर चिला का भोग लगाते हैं, और गाय-बेल के कोठों में दर्रा (मुरुम) पाटते हैं. पंडित रमाकांत मिश्र शास्त्री के अनुसार परई (हंडी ढांकने की मट्टी का पात्र) में सिंदूर से पांडु-पुत्र अर्जुन के बारह नाम लिखकर टांगने है. ये बारह नाम हैं- अर्जुन, पाथे, फाल्गुन, जिष्णु, कौंतेय, पार्थसारथी, विजय, धनंजय, कपिध्वज, सव्यसाची, गुडाकोश और श्वेतवाहन, वर्षभर के लिए एक नारियल भी टांगते हैं,
किसान अपने बैल, भैंसा के सींग में, खुरो मे तेल लगाते हैं एरंड के पत्ते मे नमक रखकर पशु को चटाते हैं, और गाय के कोठे में नारियल बांधकर कुछ लोग कुक्कुट शावक (चियां) की बलि देते है. लोग, जो डोंगा (नाव) चलाने का व्यवसाय करते हैं, वे डोंगा के गांधी (माथे) पर सिंदूर का त्रिशूल बनाते हैं, जल देवी (छत्तीसगढ़ में जल देवी मनाते हैं) की आराधना करते हैं, और डोंगहार (नाविक) नारियल फोड़कर या चिर्या की बलि देकर डोंगा की पूजा करता है. यदि नाव की पूजा नहीं होगी। तो नाव के उलट जाने का पूरा खतरा रहता है. यह विश्वास भी है, कि डोंगी मे ममा-चाचा (मातुल भागिनेय) एक साथ नहीं बैठे, वंश रक्षा का भाव, शायद इस विश्वास के मूल में हैं, उसी प्रकार रजस्वला नारी को नाव में ले जाना वर्जित है क्योंकि नाव डूबने कर भय रहता है. यहां के कृषक पूरे आस्तिक हैं.
[03/08, 9:37 pm] निर्मल माणिक: ठेठवार, पहटिया, या राउत लोग जो अपने स्वामी या किसान के यहां गाय दुहने जाते हैं या जिस दुहने जाते हैं या जिस गृह- स्वामी के पशु धन को चराने ले जाते हैं, उनके यहां जाकर यादव लोग गौ शाला में लीम डार (नील डाल) खोचते हैं, और गृह स्वामी अन्न देकर उनका सम्मान करता हैं. उसी प्रकार हमारे छत्तीसगढ़ में लुहार को भी सम्मानित किया जाता हैं. अगरिया- वनवासी लुहार है जो मिट्टी से लोहा निकारकर कृषि के उपकरण के साथ मंत्र विद्ध कील, कांटा का निर्माण करते हैं. प्रायः ये कील तथा चुल मुंदरा, कांटा, ककण ग्रहण के पूर्व में बनाते हैं अझैर निर्माण की बेलर में वे विवस्त्र रहते हैं. चूल-मुंदरी विवाह की अंगूठी है, तो कंकण वर-वधु का कंगन है. उस समय वे कंगन है. उस समय वे लोहापुर, कांसेसुर, तांबेसुर अपने देवताओं की आराधना करते हैं, लुहार अपने गृह स्वामी के घर के मुख्य द्वार पर चौखट में कील ठोंकरकर घर को प्रेत-भूत-पिशाच बाधा से सुरक्षित कर देता हैं. तो कृषक अन्न देकर उसका सम्मान करता हैं. फसल की मिसाई के बाद कृषक यादव, नापित, बरेठ, लोहार, टहलू को अन्न देकर संतुष्ट किया जाता है यह वार्षिक अन्न देना की प्रथा-जेवर हैं. छत्तीसगढ़ में जो कृषक शाक्त है, वे प्रायः हरेली के उत्सव में सिकार (मांस) खाते हैं. लोग छुट्टी मनाते हुए घर में बरा (बड़ा) चौसेला (चावल के आटे की पुड़ी) खाते हैं. लड़के लोग गेंड़ी बनाते और गेंड़ी कर प्रतियोगिता आयोजिल करते है, गेंड़ी तीन फुट से लेकर दस फुट का लंबा बाँस है, जिसकी डांड़ कहते हैं. उस डांड में पैर रखने के लिए लगभग एक फुट बांस को चीरकाट कर पउवा बनाते हैं, जिसे बांस के डंडे में फंसाकर बरही से बांध देते हैं, और उसमें खूंटी लगा देते हैं, और आवाज पैदा करने के लिए आंरड का तेल डाल देते हैं. गेंड़ी चढ़ने का अभ्यास जरुरी हैं, अन्यथा गेंड़ी पर चलना बड़ा कठिन होता हैं, जवान लोग भी गेड़ी का मजा लेता है. गेंड़ी पर चढ़कर भकाडूडू (कबड्डी) खेलते हैं, ठिक्की लड़ाते हैं और गेंड़ी को पानी पिलाते हैं, गेंड़ी में चढ़कर नाचते हैं, वनवासी लोग तो गेंड़ी सेहाकी भी खेल सकते हैं. गेंड़ी की प्रथा संभवतः कीचड़ से पैरों को बचाने के लिए शुरु होगी. गांव के मनचले लोग बरोछ खेलते हैं, नारियल फेंकने की प्रतियोगिता द्यूत क्रीड़ा भी होती है. यदि हरेली के दिन ग्रहण (गरहन) पड़ जायें, तो पुरोहितख पंडित, गुनिया, बैगा, अगरिया लुहार आदि लोग मंत्र-यंत्र ताबीज, गंडा बनाते हैं, मंत्र साधना करते हैं, और अपनों देवी की विशेष पूजा कर पूर्व को भी विशिष्ट बनास देते हैं. दुर्गा पूजा महाविद्या है, तो दूसरी ओर आसूरी विद्या भी है. यातुधान, जातुधान से जादू की विद्या टोना, जादू पांगना, झाडू फूंक करना, मूठ मारना, बान चलाना शुरु हुई. टोनही विवस्त्रा विततकेशा होकर श्मशान में साधन करती हैं, तो पंगनहा पांगन विद्या सीखता है, नारियां टोना करती है, तो पुरूष पांगन विद्या का प्रयोग करता है- ग्रहण इनके लिए महत्वपूर्ण है.
अंत में कृषक जीवन की सफलता के लिए पाराशर ऋषि ने चार गुणों का उल्लेख किया हैं- जो किसान पशू का हितैषी, क्षेत्र पर जाने वाला समय का ज्ञाता, बीजों के रक्षण में तत्पर रहता है- वह धन-धानन्य से पूर्ण रहता हैं.
‘गाय अच्छी है और खेत में जाती है, समय जानती है और बीज के प्रति समर्पित है।
सभी फसलों में से पहला मुफ़्त है और निराशा नहीं होती है।