डाँ. देवधर महंत
( 1 अप्रैल 1924-23 जुलाई 1978 )
“जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं।” इस सूक्ति को अजातशत्रु जननायक बिसाहूदास महंत ने चरितार्थ कर दिखाया।सिर्फ 54वर्ष, 3 माह,22 दिन की अपनी जीवन यात्रा में उन्होंने अपनी नितांत सदाशयता, सहजता, सरलता शालीनता, गंभीरता, वाक्संयम, परदु:खकातरता, सजगता और कर्मठता तथा जनसेवा जैसे गुणों से एक नया इतिहास रच दिया । उनके जैसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता । हमेशा उन्हें आखिरी पंक्ति के अंतिम व्यक्ति की चिंता सताती रहती थी । वे जमीन से गहरे जुड़े हुए नेता थे , इसलिए प्रथम आमचुनाव सन 1952 से लेकर वे आजीवन अपराजेय रहते हुए कुल छै बार विधायक रहे। आपातकाल के बाद सन 1977 में हुए चुनाव में अस्पताल दाखिल रहते हुए विपरीत लहर में भी महंत जी जीत का परचम लहरा गए , जबकि तात्कालीन मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश, श्यामाचरण शुक्ल जैसे बड़े -बडे दिग्गज भी उस दौर में धराशायी हो गए।
राजनीति के पंक में पंकज की तरह वे निर्लिप्त रहे। राजनीति के बारे में यह पंक्ति ्दुहरायी जाती है कि “काजर की कोठरी में कैसो हु सयानों जाय ,एक लीक काजर की लागिहैं पै लागिहैं”। इस कहावत को भी महंत जी ने झुठला दिया। राजनैतिक शुचिता के मामले में दरअसल वे डा.राजेन्द्रप्रसाद, गुलज़ारीलाल नंदा , लाल बहादुर शास्त्री,डा.राममनोहर लोहिया , कर्पूरी ठाकुर जैसे जननायकों की पंक्ति के नेता थे । जब उनका देहावसान हुआ , तो परिवार के पास चल पूंजी के रूप में कुल 65 रूपये शेष थे । उनके राजनीति में आने के बाद उनकी पैतृक संपत्ति भी बिकती रही। जबकि महंत जी ने सहकारी विपणन एवं प्रक्रिया संस्था मर्यादित चाम्पा के अध्यक्ष , विधायक, प्रदेश कांग्रेसाध्यक्ष तथा लोक निर्माण , उद्योग तथा वाणिज्य जैसे मालदार विभागों के केबिनेट मंत्री जैसे अनेक पदों को सुशोभित किया । उनकी ईमानदारी को देखकर एक शेर याद आता है-
“दामन के दाग़ देखकर हम सोचते रहे,
कैसे संभाल के रखी , चादर कबीर ने।”
सचमुच वे सच्चे अर्थों मेंं कबीर पंथी थे। वे कबीर को जीते थे । वस्तुत: महंत जी आजीवन इस दोहे को जीते रहे –
” तेरे मेरे बीच में , आड़े है तकदीर ।
तेरे पास कुबेर है , मेरे पास कबीर।।”
महंत जी छत्तीसगढ़ी विधायकों, शासकीय सेवकों और अपने लोगों से हमेशा लोकभाषा छत्तीसगढ़ी में ही संवाद करते थे। बचपन से ही उनके मन में छत्तीसगढियापन रचा-बसा हुआ था । हाईस्कूल के होस्टल बिलासपुर में पदों को शहरी छात्र ले जाते थे ,महंत जी ने गांव के लोगों का नेतृत्व किया और उन्हें पदासीन करवाया। यही बात उनके कालेज
जीवन में नागपुर में दिखी । उन्होंने छत्तीसगढ़ के छात्रों को संगठित किया। आजादी के आंदोलन में नागपुर के जिला कचहरी में झंडा फहराया। भारत छोड़ो आंदोलन में अपने छात्र साथियों के साथ सक्रिय भाग लिया। इस कारण उनकी छात्रवृत्ति बंद कर दी गई। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी । उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट निकला , लेकिन भूमिगत रहकर भी वे आजादी का अलख जगाते रहे।
महंत जी चाहते थे कि 1956 में राज्य पुनर्गठन के समय ही छत्तीसगढ़ राज्य बने , लेकिन उस समय उनका सपना पूरा नहीं हो सका । 8 अगस्त 1977 को वे मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने। उनके आवास स्थल नया पारिवारिक खंड कमरा नंबर 6, विधायक विश्राम गृह भोपाल में पृथक छत्तीसगढ़ की मांग को नए सिरे से उठाने की योजना बनी । भोपाल से लौटकर तात्कालीन बिलासपुर जिले के चार विधायकों बी.आर. यादव, बोधराम कंवर , बंशीलाल घृतलहरे तथा राधेश्याम शुक्ल ने अपने संयुक्त वक्तव्य में पृथक छत्तीसगढ़ की मांग की । यह खबर दैनिक नवभारत सहित अनेक अखबारों की सुर्खियां बनीं। फिर तो तहलका मच गया।
9 अक्टूबर 1977 को चौबे कालोनी रायपुर में विशाल सम्मेलन आयोजित हुआ। जिसमें 11 विधायक सम्मिलित हुए। रक्त हस्ताक्षरित ज्ञापन तैयार किया गया। इस सम्मेलन में छत्तीसगढ़ी के युग प्रवर्तक कवि द्वारिकाप्रसाद तिवारी “विप्र ” के साथ इन पंक्तियों का लेखक भी सम्मिलित हुआ। विप्र जी उस सम्मेलन के मुख्य अतिथि रहे।
फिर तो छत्तीसगढ़ की मांग जोर पकड़ने लगी। जगह-जगह आंदोलन होने लगे। इस संदर्भ में साप्ताहिक “रविवार”का 4-10 सितंबर 1977 का अंक द्रष्ठव्य है।जिसमें छपी “पृथक छत्तीसगढ़ की बात” शीर्षक सतीश जायसवाल की रपट देश-विदेश में खासी चर्चित हुई। जिसके कुछ अंश उल्लेखनीय हैं ” मध्यप्रदेश का दक्षिण पूर्वी हिस्सा जिसे छत्तीसगढ़ कहा जाता है , इन दिनों अलगाव के सवाल पर एक जेहादी किस्म के जुनून कीगंभीर चपेट में हैं।
राज्य विधानसभा के पावस सत्र ( 31अगस्त ) के समाप्ति के तुरंत बाद कांग्रेस के कुछ हरिजन और पिछड़ी जातियों के विधायकों ने पृथक छत्तीसगढ़ का नारा लगाया।…. बिसाहू दास महंत के नाम को उछाल मिली। अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में लगभग सात-साढ़े सात सौ पृथकतावादी रायपुर में जुड़े थे। इस सम्मेलन में पृथक छत्तीसगढ़ के लिए रक्त हस्ताक्षरित मांग पत्र के प्रारूप को स्वीकृति मिली तथा आंदोलन को चलाने के लिए एक लंबी – चौड़ी कार्यसमिति का गठन किया गया।”
छत्तीसगढ़ की प्रथम बहुउद्देशीय परियोजना हसदेव बांगो (बांडों बांध )के स्वप्नद्रष्टा भीबिसाहू दास महंत जी थे। इस हेतु वे लगातार कोशिश कर रहे थे। 1967 में संविद सरकार के सिंचाई मंत्री रामचंद्र सिंहदेव के पास महंत जी गए और इस परियोजना का विस्तृत सर्वेक्षण कराने का आग्रह किया। श्री सिंहदेव ने इस परियोजना के सर्वे को अमलीजामा पहनाया। जिसकी सुखद और सार्थक फलश्रुति है कि आज कोरबा, जांजगीर – चांपा , सक्ती और रायगढ़ जिले के लाखों कृषक लाभान्वित हो रहे हैं।
बिसाहूदास महंत का व्यक्तित्व विशाल और विराट था । छत्तीसगढ़ के अनेक माटी पुत्रों को उन्होंने विधानसभा , लोकसभा और राज्य सभा में पहुंचाया। वे किंगमेकर बनना पसंद करते थे। सन 1969 में श्यामाचरण शुक्ल को मुख्यमंत्री और 1977 में अर्जुन सिंह को विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष बनाने में उनकी भूमिका सर्वविदित है। वे चाहते तो ,1967 में संविद सरकार में उप मुख्यमंत्री और सन 1973 में मुख्यमंत्री बन सकते थे । लेकिन उन्हें कभी पद का मोह नहीं रहा ।
विगत लोकसभा चुनाव के ठीक पूर्व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न से विभूषित किया गया। यह एक सार्थक और सटीक निर्णय था। बिसाहू दास महंत जी भी निस्संदेह इस सम्मान के लिए सर्वथा योग्य ठहरते हैं। उनको भारत रत्न से विभूषित किए जाने से छत्तीसगढ़ का मान होगा। उन्होंने राजनीति और समाजसेवा की दिशा और दशा बदल दी । वे भारत के हृदय- स्थल छत्तीसगढ़ की अस्मिता के महानायक थे। किसी ने ठीक ही कहा है –
“कुछ लोग थे कि वक्त के सांचे में ढल गए।
कुछ लोग हैं कि वक्त के सांचे बदल गए।।”