बिलासपुर। जमानत दिलाने के लिए रिश्वत के आरोप में टीआई को स्पेशल कोर्ट ने तीन साल कठोर कारावास की सजा सुनाई थी। स्पेशल कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए टीआई ने हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी। सुनवाई के दौरान उसकी मौत हो गई। पति के मौत के बाद पत्नी ने इस लड़ाई को जारी रखा और पति को न्याय दिलाने अदालती लड़ाई लड़ती रही। आखिरकार 26 साल बाद वह घड़ी आ ही गई,जिसका वह लंबे समय से इंतजार कर रही थी। हाई कोर्ट के फैसले ने उसे राहत दी है। मामले की सुनवाई के बाद हाई कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को रद्द कर दिया है। हाई कोर्ट ने पाया कि जिस रिश्वत की मांग की बात की गई, उसका कोई औचित्य नहीं बनता, क्योंकि शिकायतकर्ता और उसके परिजन को पहले ही जमानत मिल गया था। जमानत मिलने के दो दिन बाद जमानत दिलाने के एवज में पैसे की मांग करने का आरोप सही प्रतीत नहीं होता है।
बसना थाना में 8 अप्रैल 1990 की एक एफआईआर की गई थी। जिसमें थाना बसना क्षेत्र के ग्राम थुरीकोना निवासी जैतराम साहू ने सहनीराम, नकुल और भीमलाल साहू के खिलाफ मारपीट की शिकायत दर्ज कराई थी। थाना प्रभारी गणेशराम शेंडे ने आईपीसी की धारा 324 के तहत अपराध दर्ज किया था। ये धारा जमानती था। लिहाजा तीनों आरोपियों को उसी दिन मुचलके पर रिहा कर दिया गया। रिहाई के दो दिन बाद एक आरोपी भीमलाल साहू ने एसपी, लोकायुक्त, रायपुर को शिकायत करते हुए कहा कि रिहा करने के बदले एक हजार रुपए की रिश्वत टीआई ने मांगी थी। इस शिकायत के आधार पर लोकायुक्त पुलिस ने कार्रवाई की, जिसमें शेंडे को रंगे हाथों पकड़ने का दावा किया गया।
हाई कोर्ट ने यह भी माना कि शिकायत करने वाला भीमलाल साहू उसकी शिकायत पर कार्रवाई नहीं होने के कारण थाना प्रभारी शेंडे से नाराज था। हाई कोर्ट ने ऐसे में ट्रैप की परिस्थितियां संदेहास्पद मानी। कोर्ट ने माना कि अभियोजन पक्ष रिश्वत की मांग साबित करने में असफल रहा और ट्रैप में जब्त राशि का कोई वैधानिक आधार नहीं था।

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