बिलासपुर: हाई कोर्ट ने एक महिला की मां द्वारा दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को खारिज कर दिया। याचिका में आरोप था कि तलाकशुदा महिला को जबरन नशीली दवाओं की लत लगाकर बंधक बनाया गया है और उसका शारीरिक व मानसिक शोषण हो रहा है। लेकिन जब स्वयं महिला कोर्ट में उपस्थित हुई और उसने स्पष्ट रूप से कहा कि वह अपनी मर्जी से संबंधित व्यक्ति के साथ रह रही है, तब न्यायालय ने उसके बालिग होने और स्वेच्छा से किसी के साथ रहने की बात स्वीकारने को ध्यान में रखकर यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि कोई व्यक्ति, जब वह बालिग है और उसकी मर्जी स्पष्ट है, तो उसे रोका नहीं जा सकता।
महिला की मां ने हाई कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा कि उसकी बेटी को दो व्यक्तियों ने उसकी सहमति के बिना नशीली दवाओं के प्रभाव में बंधक बनाकर रखा है। आरोप था कि उसे ड्रग्स की लत लगाकर उसका यौन एवं शारीरिक शोषण किया जा रहा है। याचिका में सरगुजा जिले के संबंधित थाने से अभिलेख मंगवाने की मांग की गई थी। साथ ही दोषी पुलिस अधिकारियों, मादक पदार्थों के तस्करों और अपराधियों के खिलाफ प्रथम श्रेणी के पुलिस अधिकारी की अध्यक्षता वाली जांच एजेंसी से निष्पक्ष जांच कराने की मांग भी रखी गई। याचिकाकर्ता ने अपनी बेटी के पुनर्वास एवं मानसिक स्वास्थ्य उपचार के लिए भी निर्देश देने की प्रार्थना की थी।
राज्य शासन की ओर से जवाब प्रस्तुत करते हुए बताया गया कि उक्त महिला को पारिवारिक न्यायालय द्वारा पति से तलाक की डिक्री मिल चुकी है। महिला का चार साल का पुत्र पिता की अभिरक्षा में है और कोर्ट के आदेशानुसार महिला को उससे मिलने की स्वतंत्रता भी दी गई है। पुलिस ने महिला को थाने बुलाकर बयान दर्ज किया, जिसमें उसने स्पष्ट रूप से कहा कि वह अपनी मर्जी से संबंधित व्यक्ति के साथ रह रही है और किसी प्रकार की जबरदस्ती या दबाव नहीं है।
चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस बी.डी. गुरु की युगलपीठ ने जब मामले की सुनवाई की, तब महिला स्वयं कोर्ट में उपस्थित हुई। उसने दो टूक कहा कि, वह अपनी स्वतंत्र इच्छा से संबंधित व्यक्ति के साथ रह रही है। कोर्ट ने कहा कि जब कोई महिला बालिग है और वह अपनी इच्छा से जीवन जी रही है, तो उसे बंधक मानकर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करना उचित नहीं है। कोर्ट ने यह भी माना कि जब तक किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता वास्तव में बाधित न हो, तब तक न्यायालय को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है। अदालत ने महिला की इच्छा और उसके बालिग होने को सर्वोपरि मानते हुए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को खारिज कर दिया। यह निर्णय न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को मान्यता देता है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि कोर्ट केवल उन्हीं मामलों में हस्तक्षेप करेगा, जहां किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता वास्तविक रूप से बाधित हो रही हो।

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