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July 1, 2025 3:21 pm

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जयंती पर विशेष : संत परंपरा और महाकवि तुलसीदास :डॉ पालेश्वर प्रसाद शर्मा

जयंती पर विशेष : संत परंपरा और महाकवि तुलसीदास

:डॉ पालेश्वर प्रसाद शर्मा

 

भारत की ऐश्वर्यमयी तथा वैभवशालिनी छवि जब निकटवर्ती विदेशी सेनापतियों तथा सेनानियों को धन-लोलुप बनाने लगी, तब मुगलों की कट्टर तथा क्रूर दृष्टि इस शस्य श्यामल धरा पर पड़ना स्वाभाविक था।

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फलतः सुदूर घाटियों से आये मुगल आक्रांताओं के अश्वों की टाप से उड़ी हुई धूल ने संपूर्ण आर्यावर्त को धूल-धूसरित कर दिया, तथा तलवार की प्रखर धार पर साथ ही साथ इस्लाम का प्रसार भी शुरू हो गया। निरीह एवं असहाय जनता पर अत्याचार का नर्तन जब नित्य प्रति होने लगा, तब मानस के रचयिता महाकवि तुलसीदास का आविर्भाव हुआ, तथा निराश नागरिकों में आशा व आस्था का संचार हुआ, पराभूत, परंतत्र प्रवृत्ति को सहारा देने के लिए अवतार के रूप में श्रीराम को आधार बनाना पड़ा। इतिहास के पृष्ठों में भी एक और दीने दलाही का दंभ, तथा क्रूरता का कुंभ छलक रहा था, तो दूसरी ओर महाराणा प्रताप के रूप में सूर्यवंश का सरोज खिल रहा था। देश के अनेक राजा, महाराजा पराधीन हो चुके थे, किंतु मेवाड़ का राणा स्वतंत्र था, पराधीनता के पिंजरे से मुक्त, स्वाभिमानी स्व्च्छंद ! संभवतः महाकवि तुलसीदास के अंतरमन में प्रताप की छवि थी, और मानस में दाशरथी राम का सगुण, साकार लीलामय रूप।

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तुलसी भी जन्म से निरीह कर्म से ब्राह्मण, विचारों से आस्तिक, स्वभाव से सरल, चरित्र से मर्यादित, आदत से मिलनसार, जीवन में गृहस्थ, आचार से सन्यासी, अंतस्तल से करूण, मन से धार्मिक, मेधा से दार्शनिक, और संपूर्ण सजग संत थे। वे कवि थे, स्रष्टा थे द्रष्टा थे, अनुपम अनुपमेय थे, अप्रतिम थे, तथा अनुकरणीय अनन्य थे। दैन्य भक्ति का संबल है

“राम नाम को कल्पतरू,

कलि कल्यान निवासु ।

जो सुमिरत भयो भांग ते,

तुलसी तुलसीदासुं।।”

: एक अनाथ अनिकेतन बालक प्रभु के प्रसाद से किस प्रकार महाकवि बनता है ? वह बालक विपन्न विवश, निरन्न एक-एक अन्न के दाने के लिए तरसता था यह तुलसी के जीवन का करूण पृष्ठ है। फिर भी अक्षर के अमर साधक ने जिजीविषा का परित्याग नहीं किया, आशा नहीं छोड़ी विश्वास नहीं छोड़ा, प्रपत्तिभाव से श्रीराम की शरण में अपने आप को अर्पित कर दिया। क्योंकि उनके राम अन्याय, अत्याचार, अधर्म, अनीति को समाप्त करने के लिए अवतरित हुए हैं।

जब कभी भी असदृवृत्तियों से अभिप्रेरित रावणत्व का निर्माण होता है, तब रावणत्व को विनष्ट करने के लिए सदृत्तियों के ज्योतिपुंज समत्व का आविर्भाव होता है। कविर्मनीषी तुलसी ने राम के लोक रक्षक रूप को सामने प्रस्तुत कर निराश जनता को सहारा दिया। किंतु वे स्वयं निरीह थे, जीवन भर यातना सही, किंतु किसी को दोषी नहीं ठहराया, किसी पर आक्रोश व्यक्त नहीं किया। साधना की पगडंडी पर चलते ही रहे। उन्हें यह स्मरण था, कि साधना की गैल रपटीली होती हैं उस पिच्छिल भूमि में तुलसी का जीवन सजग रहा। यद्यपि उनके जीवन का मार्ग कंटकाकीर्ण था, किंतु कवि की कलम अप्रतिहत चलती ही रही। उन्होंने मान ही लिया था-

“कर्म कमंडलु कर गहे,

तुलसी जहां भी जाती हैं.

सागर, नदी, कुएं का पानी,

बूंद न अधिक समाय ।।”

ऐसी जनश्रुति है, कि तुलसी, सूर, कबीर तीनों हिन्दी के संत कवि गरीब थे, निर्धन थे फिर भी उन्होंने अपनी आराधना-साधना में कमी नहीं की- उनका अक्षर-अक्षर आज भी अक्षत है, अमर है।

तुलसीदास तो एकदम जन्म लेकर भी मां बाप के छोड़ने पर अनाथ थे, अनिकेतन थे, उन्होंने स्वयं कहा है, कि मैं बचपन से ललाता, बिलबिलाता चार चने के दानों के लिए तड़पता रहा। मधुकरी मांग कर क्षुधा तृप्त की, मस्जिद में सोकर रातें काटी, फिर भी अपनी साधना जारी रखी। और सूरदास अंधे थे ही, घाट पर, सीढ़ियों पर शयन, मंदिर के दरवाजे पर जो मिला, उससे पेट भर लिया। उसी प्रकार कबीर ने कपड़ा बुनकर बेचा और किसी तरह जीविका चलायी। किंतु उनकी अर्चना आराधना में गरीबी कभी बाधा बनी क्या ? कोई संत हलवाहा था, कोई जूते गांठता था, वे लोक न धनी बाप के बेटे थे, न धनीमानी बनने की कोशिश की, जो मिला उसे ही पाकर संतोष कर लिया।

संत, सन्यासी काम, क्रोध, लोभ को जीतने का प्रयत्न करते हैं, प्रायः इन मनोविकारों के वशीभूत नहीं होते, फिर भी ममता को जीतना बड़ा कठिन होता है। संत तुलसीदास ने साफ स्वीकार किया है, कि ममता उनके मन से नहीं गयी। और सूरदास के अंतरतम में तो यशोदा ही थी। उनके मन में वात्सल्य, ममत्व ही था जिसके कारण मन के आंगन में शाश्वत शिशु की पैजनिया रूनझुन रूनझुन करती रही। नंद-नंदन की पायल के रणन में, नुपुरों के कंगन में, सूर की वीणा का स्वर डूब गया था, एकाकार हो गया था।

करूणा, दया, व्यक्ति के मन को कोमल और हृदय को उदार बनाती है, और यह करूणा जब विस्तार लेती है, तो सारा संसार उसकी परिधि में आ जाता है, तो महाकवि वाल्मीकि, भगवान बुद्ध, या तीर्थंकर महाबीर अवतरित हो जाते हैं।

संतो ने नारी के महिमामय, गरिमामय, अक्षय वात्सल्य मय रूप को स्वीकार किया, तथा उसके दिव्य रूप की आराधना करके उसे पूजनीया बनाया। पूरा समाज उस महिमामयी माता के दिव्य रूप के आलोक में अभिभूत हो गया।

वास्तव में व्यक्ति तब महान् होता है, जब वह समष्टि, समाज के हित में कुछ करता है। जब स्वांतः सुखाय बहुजन हिताय हो जाता है, तब आत्म-कल्याण के साथ ही साथ पुरजनों, परिजनों का भी कल्याण हो जाता है। साधारण आदमी चिंता करता है, महापुरूष चिंतन करते हैं, इसीलिए उनमें आस्था होती है, आत्मविश्वास होता है, तथा संतोष की सृष्टि होती रहती है। ईश्वर पर आस्था, भाग्य कर्मफल की बात कहकर इन लोगों ने अपने आपको ही संतुष्ट नहीं किया, वरन समस्त समाज को सांत्वना का सहारा दिया। तुलसीदास ने जन्म-मरण, हानि-लाभ, यश-अपयश प्रभु के हाथों सौंपा
था, तो कबीर ने कागज में लिखी ललाट-लिपि को मान लिया। अतः जो होना है वह तो होकर रहेगा, तर्क-वितर्क करके दिमाग खराब करने से क्या लाभ ?

अतलांत सागर विशाल जल राशि गरजता रहता है, किंतु उसके पास प्यास बुझाने के लिए एक बूंद पानी नहीं, किंतु छोटी सी तलैया, बड़ा सा ताल प्यास बुझाने के लिए पर्याप्त हैं-उसी प्रकार तुलसी ने साधना के सरोवर के जल से सबको आप्यायित किया। तुलसी सचमुच महान् साहित्यकार थे।

रवि शुक्ला
रवि शुक्ला

प्रधान संपादक

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